गुरु द्रोणाचार्य और एकलव्य की कहानी

भारत मे जातिय भेदभाव प्राचानी काल से ही चली आ रही है। यह भेदभाव काल्पनीक है। या किसी विशेष की साजिस, इसका अनुमान लगाना थोडा मुश्किल है। लेकिन तथ्यो व मान्यताओ की माने तो भेदभाव करना पूर्णत: गलत है।

हम इस कथा मे जातिय भेदभाव जो की गुरु द्रोणाचार्य ने शिष्य एकलव्य क साथ किया था की कहानी पढेंगे। आप जातिय भेदभाव से क्या समझते है। कमेंट मे हमे जरुर बताये।

एकलव्य
एकलव्य का चित्र

महान शिष्य एकलव्य की कहानी

यह महाभारत काल की बात है। जब भारत के जंगल में एकलव्य नाम का एक बालक अपने माता पिता के साथ रहता था वह धीर-बीर अनुशासित बालक था उसके माता पिता ने उसकी परिवरिश अच्छे संस्कारों के साथ किया गया था।।

एकलव्य की धनु विद्या में बडी रूचि थी लेकिन जंगल में इसके लिए व्यवस्था नहीं थी इसलिए वह गुरु द्रोणाचार्य से धनुष विद्या सिखना चाहता था। गुरु द्रोणाचार्य उन दिनों राजकुमारों अर्थात पांडवों और कौरवों को धनुष विद्या सीखा रहे थे और उन्होंने भीष्म पितामह को वचन दिया था कि वह राज कुमारो के अलावा किसी को भी धनु विद्या का ज्ञान नहीं देंगे।

जब एकलव्य अपना निवेदन लेकर गुरू द्रोणाचार्य के पास आया तो उन्होंने अपनी बिवशता बताकर वापस भेज दिया। इस पर एकलव्य बहुत दुखी हुआ लेकिन उसने यह प्रण कर लिया था कि गुरु द्रोणाचार्य को ही अपना गुरु बनाऊंगा। उसने उनकी मिट्टी की मूर्ति बनाई और उनके सामने तीर कमान चलाने का अभ्यास करने लगा। – ब्रम्हचर्य का महत्व

आपने तो ये कहावत सूनी होगी-

करत करत अभ्यास से जडमति होत सुजान।
रसरी आवत जात है,सील पर परत निशान।

अर्थात कोई भी व्यक्ति लगातार अभ्यास करेगा तो अपने कला कौशल में दक्ष हो जायेगा। उसी प्रकार बहुत कम समय में लगातार अभ्यास करने से एकलव्य भी अपनी कला कौशल में दक्ष हो गया और श्रेष्ठ धनुर्धर बन गया।

एक दिन की बात है जब जब गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के साथ धनु विद्या का अभ्यास करने जंगल की ओर आएं। उनके साथ एक कुत्ता भी था उस समय एकलव्य भी जंगल में धनु विद्या का अभ्यास कर रहा था ऐसे में जब कुत्ते को जंगल में एक तरफ़ से आवाज आई तो वह उसी तरफ जाकर भौंकने लगा जिससे एकलव्य की एकाग्रता भंग होने लगी वह कुत्ते को चुप कराने के लिए उसके मुंह बाणों से भर दिए और कुत्ते को कही भी चोट नहीं आई। कुत्ता गुरु द्रोणाचार्य के पास वापस भाग आया।

जब उन्होंने कुत्ते को देखा तो उन्हें अपने आंखों पर विश्वास नहीं हुआ उन्होंने सोचा कि इतना अच्छा धनुषधारी कौन है जिसे धनुष बाण की ऐसी विधा आतीं हैं जब उन्होंने जाकर देखा तो उनके सामने नतमस्तक होकर एकलव्य हाथ में धनुष बाण लिए खड़ा था।

अपने गुरु को देखकर सबसे पहले एकलव्य नतमस्तक होकर प्रणाम किया।द्रोणाचार्य ने उससे पूछा तुमने यह विद्या किससे सिखा है तो एकलव्य ने कहा गुरु देव में आपकी प्रतिमा बनाकर आपको अपना गुरु मान कर प्रतिदिन अभ्यास करके सिखा। यह बात सुनकर द्रोणाचार्य आश्चर्य चकित हो गये। क्योंकि द्रोणाचार्य यह बचन दिए थे अर्जुन को कि आपसे बेहतर इस धरती पर कोई धनुर्धर नहीं होगा लेकिन एकलव्य की विद्या उनके इस वचन में बांधा सावित हों रही थी।

इस लिए उनके मन बिचार आया एकलव्य से कहा शिष्य तुमने तो हमसे शिक्षा ले ली लेकिन मुझे गुरु दक्षिणा अभी तक नहीं दिए एकलव्य ने तुरंत कहा आदेश करें गुरुवार जान हाजिर है तब गुरू द्रोणाचार्य ने कहा मुझे तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा गुरू दक्षिणा के रूप में चाहिए।

यह सुनते ही एकलव्य ने तुरंत अपनी कृपाण निकाली और अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरु द्रोणाचार्य के पैरों पर रख दिया। इस घटना की वजह से एकलव्य का नाम एक आदर्श शिष्य के रुप में आज भी लिखा पढ़ा और याद किया जाता है।

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