निर्गुण भक्ति धारा के कवियो में प्रमुख नाम रखने वाले कबीर का जन्म सन् 1398 ई में कांशी के लहरतारा नामक गांव में हुआ था इनका पालन-पोषण नीरू नीमा नामक जुलाहा दम्पति ने किया। कबीर दास पढ़ें लिखे नहीं थें इनके गुरु रामानंद जी थे जिनसे उन्होंने निर्गुण भक्ति की दीक्षा ली। और समाज को एक नई राह दिखाई, आइये कबीर दास का जीवन परिचय (Kabirdas ka jivan parichay) विस्तार से जानते है.
कबीरदास का जीवन परिचय (Kabirdas ka jivan parichay)
कबीरदास जी का जन्म 15वी सदी में भारत के सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में 1398 ई० में हुआ था, कबीर साहब को एक महान कवि और संत के रुप में जाना जाता है. इनके गुरु का नाम स्वामी रामानंद था. जो की स्वामी विवेकानंद जी के भी गुरु थे।
जन्म | 1398 ई०-(14वी सदी) (वाराणसी-उत्तर प्रदेश) |
माता-पिता का नाम | नीरु – नीमा |
गुरु का नाम | स्वामी रामानंद (स्वामी विवेकानंद के गुरु) |
उपनाम | 1.कबीरदास 2.कबीर परमेश्वर 3.कबीर साहेब |
मृत्यु | 1518 ई० मगहर (अब- संत कबीरदास) उत्तर प्रदेश |
कबीरदास का पालन-पोषण नीरु – नीमा नामक दम्पति ने की, इनके माता-पिता का कोई प्रमाण ना मिलने के कारण नीरु और नीमा को ही कबीरदास के माता-पिता की उपाधि दी गई। संत कबीर के पत्नी का नाम लोई था जिनसे उन्हें 2 पुत्र रत्न कमाल व कमली की प्राप्ति हुई|
कबीर दास जी का बचपन (Kabirdas ka jivan parichay & Bachapan)
कबीरदास बचपन से ही आध्यात्मिक थे, हालाँकि ये मूर्ती पूजा, छूआ-छूत, मांसाहार जैसे अन्य विडम्बनायो पर विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने अपने विचारों से समाज को सकारात्मकता से भर दिया, कबीर दास जी कहते है की जीवन को सम्पूर्ण बनाने के लिये गुरु का होना अतिआवश्यक है। अत: हमें अपने गुरु का चुनाव कर उनके द्वारा बताये गए मार्गदर्शन का पालन करना चाहिए|
कबीरदास का साहित्यिक परिचय
कबीरदास 15वीं सदी के महान कवियों मे से एक है ये हिन्दी साहित्य के निर्गुण शाखा के महानतम कवि थे। कबीरदास की रचनाओं ने भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया।
सन्त कबीर दास भक्तिकाल लोकप्रिय काव्य का सुन्दर उदाहरण है जिसमें कवि ने बड़े स्पष्ट रूप से अपने विचारों को प्रकट किया है, इनके साखियों या दोहो में ज्ञान की महिमा, आडंबरों का विरोध, मनुष्य को संयम पूर्वक व्यवहार करने, मन का घमंड त्याग कर शालीन व्यवहार करने पर बल दिया है उन्होंने आडम्बर पूर्ण भक्ति पर प्रहार करते हुए कहा है कि मन को नियन्त्रण में किए बिना ईश्वर की सच्ची भक्ति नहीं की जा सकती।
कबीर ने नीति, व्यवहार, एकता, समता, ज्ञान और वैराग्य आदि समझाने के लिए ‘साखी’ का प्रयोग किया है। कबीर की साखियों में दोहा छंद का प्रयोग सर्वाधिक किया गया है। कबीर की साखियों पर गोरखनाथ और नामदेव की साखी का प्रभाव दिखाई देता है।
कबीरदास के प्रमुख रचनाए
कबीर साहब अपने जीवन में कई रचनाये की, उनमे से मुख्य निम्नलिखित है.
- कबीर शब्दावली
- कबीर दोहा वली
- कबीर साखी
- कबीर बीजक
- कबीर ग्रंथावली
- कबीर सागर
कबीरदास परमेश्वर के रूप में
कबीर साहब परमेश्वर का स्वरुप है, इनके विषय मे सभी धर्मो के धार्मिक ग्रंथो मे प्रमाण मिले है- हिंदू धर्म के धार्मिक ग्रंथ यजुर्वेद , ऋग्वेद, में कबीर दास जी का वर्णन किया गया है, जहाँ पर बताया गया है की कबीर साहब अपने ज्ञान का प्रचार करने के लिये पृथ्वी पर जन्म लेंगे। यजुर्वेद में कबीरदास का नाम कविर्देव लिखा है।
मुस्लिम धर्म का धार्मिक ग्रंथ पवित्र कुरान में लिखा गया है कि तुम काफिरो का कहना ना मानना, क्योंकि वे कबीरदास को परमेश्वर नहीं मानते है (आयात २५:५९) कबीर अल्लाह है जिसने जमीन व आसमान तथा इनके बीच जो भी सब बनाया है,
कबीर दास के दोहे (Kabir das ke dohe )
कबीर साहब एक आध्यात्मिक पुरुष थे, उन्होने अपनी शिक्षा मे ईश्वर की भक्ति करने पर जोर दिया। तथा अपने विचारों या दोहों से समाज में अचूल-मूल परिवर्तन किया, कबीरदास के प्रमुख दोहे निम्नलिखित है|
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान
मोल करो तरवार का, पडा रहन दो म्यांन॥
माला तो कर में फिरै,जीभ फिरै मुख माहि।
कबीर दास के दोहे
मनुवा तो चहुं दिस फिरै,यह तो सुमिरन नाही
अर्थ: इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी ने बताया है कि जो मनुष्य ईश्वर की भक्ति का आडम्बर एवं दिखावा करते हैं । वास्तव में वे हाथ में माला और मुंह मे जीभ तो फिराते रहते हैं,पर यह ईश्वर की भक्ति नहीं यह एक आडम्बर है। उसका चंचल मन ईश्वर पर केन्द्रित न होकर चारों दिशाओं में भटकता रहता हैं। ईश्वर पर ध्यान केंद्रित किये बिना सच्ची भक्ति सम्भव नहीं है।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार, तरुवर ज्यों पत्ता झड़े,
कबीरदास
बहुरि न लागे डार।
अर्थात- इस संसार में मनुष्य का जन्म बहुत कठिन है यह जन्म उसी प्रकार बार-बार नहीं मिल सकता जैसे- किसी वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लग सकता।
पीछैं लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि
अर्थ- मैं अज्ञान रूपी अन्धकार में भटकता हुआ लोक और वेदों में सत्य खोज रहा था। मुझे भटकते देखकर मेरे सद्गुरु ने मेरे हाथ में ज्ञानरूपी दीपक दे दिया जिससे मैं सहज ही सत्य को देखने में समर्थ हो गया।
कबीर के जीवन से सम्बंधित प्रश्न & उत्तर