भारतीय मध्यकालीन इतिहास में भक्ति आंदोलन का अत्यधिक महत्त्व है। इसने न केवल तत्कालीन लोगों के धार्मिक जीवन को परिवर्तित किया वरन् सामाजिक जीवन को भी प्रभावित किया। आइये जानते है कि भक्ति आंदोलन क्या है? आंदोलन के कारण एवं विशेषताएं
भक्ति आंदोलन क्या है?
भक्ति आंदोलन की शुरुआत मध्यकालीन भारत में हुआ, अनेक साधु, संतो, विचारकों एवं सुधारकों ने भक्ति को साधन मानकर सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में सुधार लाने के लिये एक आंदोलन की शुरुआत की, जिसे भक्ति आंदोलन कहा गया।
एक धार्मिक अवधारणा के रूप में भक्ति का अर्थ है मोक्ष प्राप्ति के लिये व्यक्तिगत तौर पर पूजे जाने वाले सर्वोच्च ईश्वर के सामने आत्मसमर्पण। इस सिद्धांत का उद्भव प्राचीन भारत के हिन्दू एवं बौद्ध दोनों परंपराओं में ढूंढ़ा जाता है। इसका मूल गीता जैसे ग्रंथों से जोड़कर देखा जाता है।
भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति
- हिन्दू धर्म में मोक्ष अथवा ईश्वर प्राप्ति के तीन साधन बताए गए हैं- कर्म, ज्ञान तथा भक्ति। वेद कर्मकांडी हैं, उपनिषदों में ज्ञान मार्ग का प्रतिपादन है तथा गीता में इन तीनों के समन्वय की चर्चा है। कालांतर में इन तीनों साधनों के आधार पर विभिन्न संप्रदायों की उत्पत्ति हुई। अनेक विचारकों एवं सुधारकों ने भक्ति को साधन मानकर सामाजिक, धार्मिक जीवन में सुधार लाने के लिये एक आंदोलन का सूत्रपात किया, जिसे भक्ति आंदोलन कहा गया।
- भक्ति शब्द भज् धातु से बना हुआ है जिसका अर्थ सेवा है। वस्तुतः ईश्वर के चरणों में पूर्ण रूप से आत्मसमर्पण कर देने एवं ईश्वर में पूर्ण रूप से अनुरक्त हो जाना भक्ति कहलाता है। श्रीमद् भागवत् में कहा गया कि, उस वृत्ति को भक्ति कहते हैं जिससे सांसारिक विषयों का ज्ञान प्रदान करने वाली इंद्रियों की स्वाभाविक वृत्ति निष्काम भाव से ईश्वर में लग जाए। इस तरह भक्ति के अनेक चिह्न वेद, उपनिषद्, गीता आदि प्राचीन ग्रंथों में भरे पड़े हैं। भक्ति आंदोलन का विकास दो चरणों में देखा जाता है। प्रथम चरण में यह सातवीं से दसवीं सदी में दक्षिण भारत में तथा दूसरा चरण 13वीं सदी से उत्तर भारत में दिखाई पड़ता है।
- सर्वप्रथम भक्ति आंदोलन का आविर्भाव द्रविड़ देश में हुआ, पद्म पुराण में स्पष्ट कहा गया कि “भक्ति द्रविड़ देश में जन्मी, कर्नाटक में विकसित हुई तथा कुछ काल तक महाराष्ट्र में रहने के बाद गुजरात में पहुँचकर जीर्ण हो गई।”
वेदांत दर्शन
वेद के संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद के चार भागों में अंतिम उपनिषद ही वेदांत शब्द द्वारा कहा जाता है। वेद का अंत वेदांत है। (वेदस्य अंतः वेदांत), यह वेदांत शब्द का निर्वचन है।
भारतीय दर्शन में अध्यात्मवाद और भौतिकवाद दोनों शामिल हैं। यहाँ जितने दर्शनों का विकास हुआ, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण ‘वेदांत’ दर्शन को माना जाता हैं। वेदांत दर्शन के अंतर्गत, जीव और ब्रह्म के संबंध मे कई अलग-अलग उत्तर दिये गए हैं जिनके परिणामस्वरुप वेदांत के विभिन्न संप्रदायों का जन्म हुआ। जो निम्नलिखित हैं
अद्वैत
वेदांत दर्शनों में सर्वदर्शन शिरोत्नभूत अद्वैत दर्शन होता है। इस दर्शन के प्रवर्तक आदि शंकाराचार्य हैं। इस दर्शन में एक ही वस्तु की ही सत्ता स्वीकार की जाती है और वह ब्रहा है। यह दर्शन संसार को एक भ्रम या माया बताता है। सुख-दुःख, सभी कार्य और भावनाएँ केवल भ्रम है क्योंकि ब्रह्म के अलावा दूसरा कुछ है ही नहीं।
ब्रह्म जगत की परिणति नहीं विर्वत है। बहुजीववाद स्वीकार नहीं करते, सोपाधिक ब्रह्म ही जीवत्व है। इस दर्शन में जो ब्रह्म का स्वरूप प्रतिपादित है वह सच्चिदानन्द स्वरूप है और वह निर्गुण, निष्क्रिय शांत और अवाङ्मनसगोचरम् (मन के द्वारा अग्राह्य) है। क्योंकि इस प्रकार ब्रह्म का स्वरूप वाणी द्वारा प्रकाशित नहीं किया जा सकता।
शुद्वादैत
इसके प्रवर्तक वल्लभाचार्य हैं। इनके द्वारा शंकराचार्य के द्वारा अद्वैतवेदांत में प्रतिपादित मायावाद के प्रमाण का खंडन करके शुद्वाद्वैत का प्रतिष्ठापन किया गया। और निर्गुण रूप प्रेम-लक्षण का भक्ति के द्वारा प्रचार किया, इसका ही व्यावहारिक स्वरूप पुष्टिमार्ग है। इस दर्शन में कारण रूप से और कार्यरूप से ब्रह्म शुद्ध ही रहता है। शुद्धाद्वैत शब्द दो प्रकार से व्युत्पन्न है-
- शुद्धयों- इस नाम का तात्पर्य है- शुद्ध जगत्-जीव ब्रह्म से अभिन्न ही है।
- शुद्धं च अद्वैचं च शुद्धाद्वैतामति कर्मधारय- इसका अर्थ है- ब्रह्म का जो अद्वैत है वह शुद्ध माया संबंध से रहित है।
द्वैतवाद
इसके मुख्य प्रवर्तक मध्यावाचार्य हैं। द्वैत का मतलब दो यानी जीव और ब्रह्म है। इस दर्शन में जीव और ब्रह्म को अलग-अलग माना गया है और उसी के अनुसार ईश्वर की आराधना की जाती है।
विशिष्टाद्वैतवाद
इसके प्रमुख प्रवर्तक रामानुजाचार्य हैं। ये भागवत धर्म के ईश्वरवाद से प्रभावित थे, इसलिये वे ब्रह्म की सगुण और साकार रूप में उपासना करना चाहते थे। उनके मत के अनुसार, सत्ता तो एक ब्रह्म की है, लेकिन जिस तरह किसी पेड़ की शाखाएँ, पत्ते, फल-फूल उसी पेड़ के अलग-अलग भाग होते हैं, उसी तरह जीव (आत्मा) और माया, परमात्मा के ही भाग है, या उन्हीं के विशेष गुण हैं।
द्वैताद्वैत
इस दर्शन के मुख्य प्रवर्तक निम्बाकाचार्य या निम्बार्क हैं। वह अस्तित्व की तीन श्रेणियों में विश्वास करते थे जो विशिष्ट अद्वैत के समान हैं। ये हैं चित्, उचित और ईश्वर। चित् और उचित, दोनों ईश्वर पर निर्भर हैं। इसलिये ईश्वर का स्वतंत्र अस्तित्व है और चित् और उचित आश्रित अस्तित्व हैं। जैसे मिट्टी ही घड़ा बन जाती है। मिट्टी के बिना धोड़े का कोई अस्तित्व नहीं।
भक्ति आंदोलन के उद्भव के कारण
- तुर्कों के आक्रमण से पहले उत्तर भारत के सामाजिक-धार्मिक क्षेत्र पर राजपूत-ब्राह्मण गठबंधन का वर्चस्व बना हुआ था जो किसी भी प्रकार के गैर-ब्राह्मण आंदोलन के विरुद्ध थे और वर्णाश्रम धर्म के पालन पर बल देते थे। तुर्कों की सत्ता की स्थापना के साथ ही इस्लाम धर्म का भी प्रसार हुआ और इससे ब्राह्मणों की शक्ति और प्रतिष्ठा को धक्का लगा। इस प्रकार निरीश्वरवादी आंदोलन के उदय का मार्ग प्रशस्त हुआ।
- तुकों का शासक वर्ग, राजपूतों की तरह गाँवों में नहीं शहरों में रहता था। कृषि अधिशेष का अधिकांश हिस्सा शासक वर्ग के खजाने में पहुँच जाता था। इस वर्ग ने उपभोक्ता वस्तुओं, विलासिता के सामान एवं अन्य वस्तुओं के निर्माण की मांग बहुत बढ़ा दी। इस कारण बड़े पैमाने पर शिल्पों का विकास हुआ, फलतः शहरी कारीगरों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई। यह कारीगर समाज का निम्न वर्ग था जो समृद्ध होता हुआ नवीन शहरी वर्ग एकेश्वरवादी आंदोलन की ओर आकर्षित हुआ क्योंकि यह धार्मिक समता की बात करता था, जबकि ब्राह्मणवादी व्यवस्था में उनका स्थान काफी नीचे था।
इस तरह हम देखते हैं कि भक्ति आंदोलन के उद्भव को किसी एक खास बिंदु तक सीमित नहीं किया जा सकता। उत्तर भारत में तेरहवीं से सोलहवीं सदी के बीच अनेक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिवर्तनों ने भक्ति आंदोलन का आधार निर्मित किया।