“दीवानों की हस्ती” पाठ का भावार्थ और पूरी कविता

नमस्कार पाठकों इस लेख में हम कक्षा 8 NCERT की हिन्दी किताब से, दीवानों की हस्ती नामक कविता का सन्दर्भ सहित व्याख्या जानेंगे। आइए सबसे पहले लेखक का परिचय जानते हैं।

दीवानों की हस्ती – श्री भगवतीचरण वर्मा

दीवानों की हस्ती

कवि का परिचय: दीवानों की हस्ती नामक कविता के रचयिता श्री भगवतीचरण वर्मा है इनका जन्म 30 अगस्त 1903 ई० में उन्नाव जनपद के शफीपुर नामक गांव में हुआ था। इन्होंने प्रयागराज से बी०ए & एल०एल०बी की उपाधि प्राप्त की, वर्मा जी पहले कविता लेखन करते थे परन्तु बाद में ये उपन्यासकार के रूप में सुप्रसिद्ध हुए, इनकी मृत्यु 5 अक्टूबर 1981 में हुई।

दीवानों की हस्ती कविता के कवि कौन है?: श्री भगवतीचरण वर्मा

दीवानों की हस्ती पाठ का भावार्थ

प्रस्तुत कविता में कवि का मस्त-मौला और बेफिक्री का स्वभाव दिखाया गया है । मस्त-मौला स्वभाव का व्यक्ति जहां जाता है खुशियाँ फैलाता है। वह हर रूप में प्रसन्नता देने वाला है चाहे वह ख़ुशी हो या आँखों में आया आँसू हो। कवि ‘बहते पानी-रमते जोगी’ वाली कहावत के अनुसार एक जगह नहीं टिकते। वह कुछ यादें संसार को देकर और कुछ यादें लेकर अपने नये-नये सफर पर चलते रहते हैं।

वह सुख और दुःख को समझकर एक भाव से स्वीकार करते हैं। कवि संसारिक नहीं हैं वे दीवाने हैं। वह संसार के सभी बंधनों से मुक्त हैं। इसलिए संसार में कोई अपना कोई पराया नहीं है।जिस जीवन को उन्होने खुद चुना है उससे वे प्रसन्न हैं और सदा चलते रहना चाहते हैं।

प्रसंग दीवानों की हस्ती, नामक प्रस्तुत पाठ आधुनिक कविता का नमूना है जिसमें कबि ने दीवानों के मस्ती भरे जीवन का वर्णन किया है एक ओर वह अपने जीवन को नकारता है, तो दूसरी ओर अपने अस्तित्व को महत्व देता है।वह अभावों में भी खुश रहता है,जो उसकी जबरदस्त मस्ती का उदाहरण है।

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दीवानो की हस्ती, पूरी कविता

हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले ।
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले ।

आए बनकर उल्लास कभी, आंसू बनकर बह चले अभी
सब कहते ही रह गए, अरे, तुम कैसे आए, कहाँ चले ।

किस ओर चले? मत ये पूछो, बस, चलना है इसलिए चले
जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले ।

दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हंसे और फिर कुछ रोए
छक कर सुख-दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले ।

हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले
हम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चले ।
 
हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके
हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले ।

हम भला-बुरा सब भूल चुके, नतमस्तक हो मुख मोड़ चले
अभिशाप उठाकर होठों पर, वरदान दृगों से छोड़ चले ।

अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बन्धे थे और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले ।


लेखक - श्री भगवतीचरण वर्मा