नर हो, न निराश करो मन को, कुछ काम करो, कुछ काम करो” इस कविता के लेखक मैथलीशरण गुप्त जी है। जिनका जन्म भारत के उत्तर प्रदेश राज्य मे 3 असस्त 1886 मे हुआ था। ये एक अच्छे लेखक के साथ-साथ, कवि, राजनेता, नाटककार भी थे।
मैथलीशरण गुप्त जी ने जीवन से जुडी कई कहानिया, कृतिया और कविताये लिखी है। आज हम इस लेख मे मैथलीशरण द्वारा लिखित “नर हो, न निराश करो मन को, कुछ काम करो, कुछ काम करो” कविता पढेंगे।
नर हो न निराश करो मन को – Nar Ho Na Nirash karo Man ko
नर हो न निराश करो मन को।
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
जग में रह कर कुछ काम करो।
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो।
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को।
नर हो न निराश करो मन को।।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे।
हम भी कुछ हैं,,यह ध्यान रहे।
सब जाये अभी,पर मान रहे।
मरणोततर गुजिया गान रहे।
कुछ हो न तजो निज साधना को।
नर हो न निराश करो मन को।।
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
प्रभु ने तुमको कर दान किए।
सब वांछित वस्तु विधान किए।
तुम प्राप्त करो उनको न अहो।
फ़िर है यह किसका दोष कहो।
समझो न अलभय किसी धन को।
नर हो न निराश करो मन को।।
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
करके विधिवाद न खेद करो।
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो।
बनता बस उद्यम ही विधि है।
मिलती जिससे सुख की निधि है।
समझो धिक निष्क्रिय जीवन को।
नर हो न निराश करो मन को।
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
संभलो की सुयोग न जाए चला।
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला।
समझो जग को न निरा सपना।
पथ प्रशस्त करो अपना अपना।
अखिलेश्वर हैं अवलंबन को।
नर हो न निराश करो मन को।
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
कवि – मैथलीशरन गुप्त
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सच है विपत्ति जब आती है|
कायर को ही दहलाती है।
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते।
विघ्नों को गले लगाते हैं,
कांटों में राह बनाते हैं।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में।
खम ठोक ठेलता है जब नर।
पर्वत के जाते पांव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है।
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर।
हैं छिपे मानवों के भीतर।
में हदी में जैसे लाली हो।
वर्तिका बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है।
रोशनी नहीं वह पाता है।
रचयिता – राम धारी सिंह दिनकर।
सुंदर दोहे, धन्यवाद सर