Bhagwat Geeta Shlok : महाभारत का प्रमुख काव्य ग्रन्थ गीता के अध्याय पांच कर्मयोग के कृष्णभावनाभावित कर्म पाठ से प्रसिद्ध श्लोक लिया गया है। इसमें मनुष्य के कर्मफल के बारे में बताया गया है। वेद शास्त्र में ऐसी मान्यताएं हैं कि इस भौतिक जगत में हर व्यक्ति को कर्म करना पड़ता है। किन्तु यही कर्म उसे, इस जगत से बांधते या मुक्त कराते हैं। निष्काम भाव से ईश्वर की प्रसन्नता के लिए कर्म करने से मनुष्य इस कर्म के नियम से छूट जाता है और आत्मा तथा परमेश्वर के विषय में दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है।
हमारे देश का प्रमुख काव्य ग्रन्थ महाभारत है जिसके रचयिता वेदव्यास जी थे इस युद्ध के दौरान भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को भगवत गीता का उपदेश दिया था। जो आज भी प्रासंगिक है और हमे जीवन जीने का मार्ग सिखाते है। आज इस पोस्ट में भगवत गीता के कुछ प्रसिद्ध श्लोक (Bhagwat Geeta Shlok) आप सब तक पहुंचाने किये हैं। आशा करते हैं आपको जरूर पसंद आयेगा।
भागवत गीता के श्लोक – bhagwat geeta shlok
संन्यास कर्मणा कृष्ण पुनर्योग च शन्ससि।
यच्छे्य एतयोरेक तन्मे बूर्हि सुनिश्चितम।।
भावार्थ- भगवत गीता के इस श्लोक में भगवान कृष्ण बताते हैं कि भक्ति पूर्वक किया गया कर्म शुष्क चिन्तन से श्रेष्ठ है। भक्ति पथ अधिक सुगम है क्योंकि दिव्यस्वरूप भक्ति मनुष्य को कर्म बन्धन से मुक्त करतीं हैं। और उसे अनंत जीवन की प्राप्ति होती है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।
भावार्थ- श्रेष्ठ पुरुष जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है।
योगयुक्तो विश्रुध्दात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय
सर्वभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।
भावार्थ- जो भक्ति भाव से कर्म करता है वे विशुद्ध आत्मा है और जो व्यक्ति अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता है वह सबका प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बंधता।
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृत विभु ।
Bhagwat Geeta Shlok
अज्ञानेनावृत ज्ञान तेन मुहान्ति जन्तवः।।
भावार्थ- परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है,न पुण्यों को। किन्तु सारे जीव उस अज्ञान के कारण मोहगरस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किए रहता है।
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते
भावार्थ – जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है ।
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संस्कृत श्लोक |
भगवद गीता के वचन |
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भगवत गीता के प्रेरणादायक श्लोक – Motivational Bhagwat Geeta Shlok in Hindi
इहैय तैर्जित सर्गो येषा साम्ये सिथितम् मन।
निर्दोषम् हि समम् ब्रह्मा तस्माद् ब्रह्माणी ते स्थिता ।।
भावार्थ- जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित है उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बन्धनों को पहले ही जीत लिया है।वे ब्रह्मा के समान निर्दोष है और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
भावार्थ- श्री कृष्ण कहते हैं की जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं अपने स्वरूप की रचना करता हूँ।
नैव किन्नचित्करोमीति युक्तों मन्येत तत्ववित्।
Bhagwat Geeta Shlok
पश्यन्शृण्वन्स्पृशन्नजिघन्नश्रन्गच्छन्स्वपन्श्रसन्
प्रलपन्विसृजन्गृहृन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि
इन्द्रियाणीन्र्दियारथेषु वर्तन्त इति धारयन्।
भावार्थ- दिव्य भावनामृत युक्त पुरुष देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते खाते चलते फिरते,सोते तथा सांस लेते हुए भी अपने आप में सदैव यही जानता रहता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता। बोलते त्यागते, ग्रहण करते,या आंखें खोलते बन्द करते हुए भी वह यह जानता रहता है कि भौतिक इन्द्रियां अपने अपने विषयो में प्रवृत्त हैं और वह इन सबसे पृथक है।ै
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
भावार्थ- सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए… और धर्म की स्थापना के लिए मैं युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।
अभी तक आपने भारत के प्रमुख काव्य ग्रन्थ का प्रसिध्द श्लोक पढ़ा अब आगे आपको इस महान ग्रन्थ से दिव्यज्ञान पाठ से और अधिक श्लोक पढ़ने के लिए मिलेगा। गीता के प्रसिद्ध श्लोक और पढ़ने के लिए अनन्त जीवन के दूसरे पेज पर जाएं।
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